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२५६ श्रीमद्वल्लभाचार्य ___जब इन्द्रिय स्पष्ट रीति से प्रभु में जुडी हुई रहे निरोध होना संभव है। आंखो से प्रभु के दर्शन कर भी यदि मन अन्यत्र हुआ तो फल व्यर्थ होता है बात को सुधारने के लिये आप श्री की आज्ञा है--
यस्य वा भगवत्कार्य यदा स्पष्टं न दृष्यते तदा विनिग्रहस्थस्य कर्तव्य इति निश्चयः
जब जब यह मालुम हो कि अमुक इन्द्रिय भगव लगने में अशक्त है अथवा वह अपना भगवत्कार्य ! नहीं करती तब २ ही उसी इन्द्रिय को सुधारने पर २ बल देते रहना चाहिये जिस से सर्वदा सब । अपने २ भगवत्कार्य को यथाशक्ति करती रहें और की प्राप्ति हो ।
इस निरोध के सिवाय दूसरा मत्र भगवान् व करने का नहीं है, न कोई स्तोत्र है, न कोई विद्या है न कोई इस के सिवाय तीर्थ ही है । भगवद्भक्त के तो सर्वोत्तम मत्र, तत्र, तीर्थ और विद्या सब केवल ही है। निरोध प्राप्ति के अर्थ ही भगवद्भक्त प्रयत्न कर
निरोध की व्याख्या-प्रपंच में से (जगत् में से 'निरोध' की का हटकर प्रभु के चरणारविन्दो में
तीन दशा यह निरोध की व्याख्या है । इस की तीन दशा हैं, प्रथम, मध्यम और उत्तम ।