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और उनके सिद्धान्त।
२५७ अविद्या की निवृत्ति होकर प्रभु के स्वरूपज्ञान होने से 'मैं प्रभु का दास हूं फिर भी प्रभु का मुझे वियोग हुआ है' यह समझ में आजाना निरोध की प्रथमावस्था है। यह दशा प्राप्त होने का साधन भगवान् के गुणों का श्रवण और कीर्तन करना है।
निरोध की मध्यमदशा-निरोध की प्रथमदशा में, अन्तःकरण में, भगवद्वियोग जनित ताप क्लेश का अनुभव हुआ था। इस से संसार में से आसक्ति अब इट जाती है और प्रभु में आसक्ति बढती रहती है। इस मध्यम दशा में प्रभु की लीला का अनुभव करते २ भगवत्साक्षात्कार होता है। प्रभु के गुणगान में ही संसारासक्त मन प्रभु की प्राप्त्यर्थ नाना क्लेश का अनुभव करता है, तव हृदयस्थित प्रभु वाहर प्रकट हो कर दर्शन देते हैं।
निरोध की उत्तम दशा-प्रभु साक्षात्कार के अनन्तर भगवान् जव पुनः हृदय में विराजमान हो जाते हैं, तब फलरूप विरह दशा प्राप्त होती है। ऐसी दशा, प्रभु की भक्त पर जब अत्यन्त कृपा होती है तभी जीव पर होती है साधन से यह दशा प्राप्त नहीं की जा सकती । निरोध दशा अपने वल से प्राप्त नहीं हो सकती । इस लिये निरोध प्राप्ति के इच्छुकों को परम भगवदीयों का सत्संग कर, श्रवण और कीर्तन करते रहना चाहिये।