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२५४ श्रीमद्वल्लभाचार्य करते हैं । श्रीसुबोधिनीजी में लिखा है-" मय्येव मनो युंजानाः शीघ्रमेवाचिरान्मामवाप्स्यथ ।" अर्थात् जो लोग मेरे बीच में ही केवल मन लगाते हैं वे शीघ्र ही मुझ को प्राप्त होते हैं। ___ भक्त जन का भगवान् के विषय में ऐसा होना चाहिये कि जिस से सर्वशक्तिवान् भगवान् का भी निरोध भक्तजन को प्राप्त हो । इन दोनों निरोध के सम्बन्ध से भक्त का निरोध दृढ होता है । और कोई प्रकार से वह दृढ नहीं हो सकता । सुबोधिनी जी में कहा हैनिरोधो यदि भक्तानां स्वस्मिन् स्वस्य च तेषु च । तदोभयसुसंबंधात् दृढो भवति नान्यथा।
अर्थात्-जब भगवान् का निरोध भक्त में और भक्त का निरोध भगवान् में हो जाय तो वह सम्बन्ध अत्यन्त दृढ हो जाता है । इसके दृढ करने का और उपाय नहीं है।।
भक्ति के विषय में शास्त्रों में वर्णित संस्कारों की आवश्यकता नहीं है क्यों कि भक्ति प्रेम अथवा और साधनों से सिद्ध होती है।
किन्तु यह ध्यान रखना चाहिये कि सेवा या भक्ति का ढोंग रखने से ही अथवा सेवा का अनुकरण करने से ही अथवा सेवा, भक्तिरहित हो कर करने से कोई फल प्राप्त नहीं हो सकता । आप श्री का कथन है