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और उनके सिद्धान्त। २५३ सहित भगवान् की जो स्थिति उसे ' शयनम् ' कहते हैं। अनुरुपता उपसर्गार्थ में है। इस से श्रीकृष्ण की लीलानुरुपा जो स्थिति उसे अनुशयन कहते हैं। ___ अपनी अनेक शक्तियों के साथ श्रीकृष्ण का जगत् में क्रीडा करना ही निरोध है । सुबोधिनीजी में भी इसी बात को कहा है-- निरोधोस्यानुशयनं प्रपञ्चे क्रीडनं हरेः।
शक्तिभिर्दुर्विभाव्याभिः कृष्णस्येति हि लक्षणम् ।। ___ अर्थात्-प्रपञ्च में भगवान् श्रीकृष्ण का अपनी दुर्विभाव्य शक्तियों के साथ जो क्रीडन उसे ही निरोध कहते हैं।
निरोष का लक्षण यह है कि प्रत्येक अथवा कोई भी निरोध की उपाय के द्वारा मन का सर्व व्यापार भगवान् सामान्य टीका श्री कृष्ण में समर्पण कर दिया जाय ।
चतुःश्लोकी में आचार्य श्री ने कहा हैसर्वदा सवेभावेन भजनीयो व्रजाधिपः। स्वस्यायमेव धर्मो हि नान्यः स्वापि कदाचन ॥
अर्थात्-सब भावों से सर्वदा भगवान् श्रीकृष्ण की ही सेवा करनी चाहिये । मन में यह दृढ कर लेना चाहिये कि यही मेरा धर्म है। इस के सिवाय धर्म और कोई भी नहीं है।
इस प्रकार जो लोग ईश्वर में अनन्य भाव रखकर अपने मन को उन में लगाते हैं वे शीघ्र ही उन को प्राप्त