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श्रीमद्वल्लभाचार्य श्रीमद्भागवत में लिखा हैनिरोधोस्थानुशयनमात्मनः सह शक्तिभिः ।
अर्थात्-परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण का अपनी शक्ति के सहित जो अनुशयन उसे निरोध करते हैं । आत्मपद से निर्गुण परब्रह्म का ग्रहण करना चाहिये । 'गौणश्चेन्नात्मशब्दात् ' इस सूत्र में भी 'आत्म' शब्द को परब्रह्म वाचक कहा है। अब विचार यह होता है कि परब्रह्म कौन? गोपालतापिनीयोपनिषत् में लिखा है-'कृषिभूवाचकः शब्दो णश्च निर्वृतिवाचकः । तयो रैक्यं परब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते' और 'कृष्णस्तु भगवान्स्वयम् इन दोनों वाक्यों से कृष्ण का परब्रह्म भगवान् होना सिद्ध होता है । इसलिये अब यह सिद्ध हुआ कि कृष्ण का जो अनुशयन उसे निरोध कहते हैं। अब विचार यह होताहै कि अनुशयन किसे कहते हैं। भगवान् की लीलानुरूप स्थिति को ही अनुशयन कहते हैं । 'विष्णुः सर्वगुहाशयः' इस वाक्य में शीट धातुका स्थिति में अर्थ किया है। जिस प्रकार 'गुहाशय' का अर्थ 'गुहायां शेते नहीं होता उसी प्रकार यहां भी अनुशयन का अर्थ सोना नहीं है। क्यों कि निद्रा तो अविद्या वृत्ति है ब्रह्म में उसका होना सर्वथा असम्भव है । इसलिये शी धातु का यहाँ अनुरूप स्थिति अर्थ होता है । इसलिये अपनी दुर्विभाव्य शक्तियों के