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और उनके सिद्धान्त ।
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अर्चनरुपभक्ति है । प्रभु में दीनता रखकर सदा उनके लिये नमस्कार करते रहना ही वन्दन है। __ भगवत्प्रसाद लेना, प्रसादी वस्त्रों का धारण करना, कुंकुम चन्दनादिक से तिलक करना, अन्याश्रय न करना दास्य भक्ति है। __ शीतकाल में प्रभु को दिवस में गद्दर तथा रात्रि में रजाई धराना, उष्ण काल में चन्दन गुलाब जल आदि का अर्पण करना तथा प्रातःकाल से लेकर सायंकाल पर्यन्त समय समय पर ऋतु के अनुकूल उत्तम पकवान, पना, दूध, दही, माखन मिश्री आदि लोक प्रिय उत्तम पदार्थों का प्रभु के भोगादि में पधराना यह सब सख्यभक्ति है। अप्रेरित हिताचरण को सख्य कहते हैं।
देह, इन्द्रिय, अन्तःकरण तथा स्त्री पुत्र गृह मित्र और धन आदि को प्रभु के उपयोग में लाकर प्रभु की सेवा के लायक बनाना अर्थात् इन सब का प्रभु से संबंध कराना आत्मनिवेदनरूपभक्ति है।
अभ्यासार्थ प्रश्न। सेवा क्या है ? नवधा भक्ति का वर्णन करो। सेवा कितने प्रकार की है ? सम्प्रदाय में सेवा किस भाव से की जाती है ?