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और उनके सिद्धान्त ।
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२-कीर्तन-प्रभु के नाम, चरित्र तथा स्तोत्रों का अधिकार पूर्वक श्रद्धा से कीर्तन करे उसे कीर्तन कहते हैं। यह भक्त की दूसरी सीढी है। __ ३-स्मरण भक्ति-प्रभु के स्वरूप, लीला तथा लीला के परिकर को मन में ले आने को और उनका निरन्तर ध्यान करने को स्मरण कहते है । यह भक्त की तृतीयावस्था है । और यह श्रवण और कीर्तन से सिद्ध होती है।
४-पादसेवन-श्रद्धा से सदा प्रभु की प्रेम पूर्वक परिचर्या करते रहना इसे पाद सेवन कहते हैं । यहाँ पाद सेवन का अर्थ सोहिनी सेवा से लेकर अन्नकूट की सेवा पर्यन्त का है ।
५-अर्चन-प्रभु के माहाल्य का हृदय में ध्यान धर कर शास्त्रोक्त रीति से सेवा करते समय जो उपचार किये जांय उसे अर्चन कहते हैं।
६-वन्दन-अपनी दीनता को व्यक्त करते हुए जो प्रभु को नमन किया जाता है उसे वन्दन कहते है।
७-दास्य-किसी तरह से भी अन्याय न कर केवल प्रभुका ही दास होते रहना इसे दास्य कहते हैं।
८-सख्य-श्रद्धासे प्रभु में और प्रभु की सेवा में किसी भी प्रेरणा से रहित हो प्रभु के सुख का जो ध्यान रक्खा जाता है उसे सख्यभक्ति कहते हैं। जहां २ प्रभु की सेवा विराजमान है वहां २ सर्वत्र ग्रीष्म मे पंखा करना, चन्दन धारण कराना इत्यादि विधेय हैं । इसी प्रकार शीत