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________________ और उनके सिद्धान्त। २४५ में स्नेह का संचार न हो तव तक कर्तव्य है। अनन्तर तो भगवत्कृपा से स्नेह स्वयं स्फुरित होता रहता है । इसी का निर्णय भाष्यकार ने भी किया है। पुष्टिमार्ग मे तो इसकी पराकाष्ठा है । यह निश्चय है कि भगवान् भी इससे अतिरिक्त पय से प्रसन्न नहीं होते । भगवान् ने 'अर्थतत्परम गुह्यम् । और 'सुगोप्यमपि वक्ष्यामि' यह कह कर इस पथ से एकान्त प्रेम प्रकट किया है । अतएव मानसी सेवा ही उत्तम है, वही कर्तव्य है और वही भगवान् में गाढ अनुराग पैदा करने वाली है। ___ भगवान् में मन की अविच्छिन्न गति, उनमें सर्वतोधिक स्नेह और उनमें दृढ विश्वास प्रभु की सेवा करने से ही होसक्ती है। __समाधि में जिस प्रकार मन वाह्यज्ञानशून्य हो अपने ध्येय में एकतान हो जाता है उसी प्रकार ही मानसी सेवा मे भी मन प्रभुके चरणारविन्द मे एक तान मन प्राण हो जाता है । सेवा की प्रथम अवस्था मे मन नम्र होता है, द्वितीय में भगवान् के अधीन और तृतीय में भगवान् मे तन्मय हो जाता है । यह सेवा की पराकाष्ठा है । भगवान् की सेवा में पहले प्रेम होता है फिर आसक्ति होती है और अन्त मे भगवान् में व्यसन हो जाता है । जब व्यसन हो जाय तव जानना कि भक्ति या सेवा का उत्तम फल मिला। जब मन सब बाह्य वृत्तियों से निकल कर भगवान् में एक
SR No.010555
Book TitleVallabhacharya aur Unke Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVajranath Sharma
PublisherVajranath Sharma
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith & Hinduism
File Size10 MB
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