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श्रीमद्वल्लभाचार्य सेवा और दूसरी फलरूप सेवा । इस में मानसी सेवा फल रूपा परा है । यह सेवा श्री ब्रजसीमंतिनीओं को साक्षास्वरूप में प्राप्त थी । और यही बात भगवान् ने 'तानाविदन्' इस वाक्य में कही है । यह सेवा वडी कठिन है । भगवान् का ध्यान सर्वत्र और सर्वदा बना रहे या भगवान् में जब व्यसन हो जाय तभी साध्य हो सकती है। मनसा, वाचा और कर्मणा भगवान् श्रीकृष्ण ही आराध्य
और संचिन्त्य हों तभी यह सेवा सिद्ध हो सकती है। इस में भी बाह्य सेवा और आभ्यन्तर सेवा ये दो भेद हैं । इन दोनों में मानसी सेवा बाह्य सेवा का फल है। ये दोनों प्रकार की सेवा साधन फल रूप होने से नित्य अनुष्ठेय हैं । यही बात सूत्रकार ने फलाध्याय के प्रथम पाद में 'आवृ. त्तिरसकृदुपदेशात्' इस सूत्र में कही है । अतः सूत्रकारने भी फलाध्यास में साधन का विचार किया और उस के असकृदुपदेश की आवश्यकता सिद्ध की। मानसी सेवा मुख्य है यह भी साधनाध्याय के सहकार्यन्तराधिकरण से सिद्ध हो जाती है।
शास्त्रों में भी कायिक, वाचिक और मानसिक यह तीन साधन उपदिष्ट किये गये हैं। उन में से मानसिक मुख्य समझा गया है। कहा भी है 'मनसैवाप्तव्यम् । अर्थात् मनसे ही प्राप्त करना चाहिये । यह श्रुति भी मानसी सेवा को उत्कृष्ट पद दे रही है । यह बाह्य साधन जब तक भगवान्