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________________ और उनके सिद्धान्त। २४१ वनवाना यह वित्तजा सेवा है। यह दोनों सेवा मानसी सेवा में सहायक हैं और इनका निरन्तर अभ्यास करते रहने से वीज रूप भाव का उद्बोध होता है । और इसी भाव के उत्पन्न होने से प्रभु में प्रेम का प्रादुर्भाव होता है । यह रतिरूपा प्रथम भूमिका है। इस के अनन्तर भक्तिवर्धिनी की रीति से निरन्तर सेवा करने से आसक्ति और व्यसन ये दोनों एक के बाद एक इस प्रकार होते हैं । प्रभु में व्यसन होने से जीव कृतार्थ हो जाता है । व्यसन हो जाने पर साधनों का आचरण करना आवश्यक नहीं होता । इतना, और यहां तक तो जीव के वस की बात है किन्तु अव सर्वात्मभाव केवल भगवान् ही के हाथ में है । सर्वात्मभाव तो केवल भगवदनुग्रह से प्राप्त होता है। मानसी सेवा अथवा व्यसन का चरम फल भगवत्प्राप्ति है। __ इस सम्प्रदाय में प्रभु की सेवा, विना कोई फल की आकांक्षा रख कर की जाती है । उत्तम भक्त को उचित है कि वह किसी भी कामना को अपने हृदय में न रख शुद्ध रीति से भगवान् की परिचर्या करै । जो लोग यद्यपि भगवान् की शुद्ध रीति और सच्चे अन्तःकरण से सेवा करते हैं तथापि कुछ फल की आकांक्षा रखते हैं वै सच पूछो तो भगवान् के सेवक ही नहीं हैं । वे तो एक प्रकार के क्रय विक्रय करने वाले व्यापारी हैं जो एक चीज देकर दूसरी की आकांक्षा करते हैं ।
SR No.010555
Book TitleVallabhacharya aur Unke Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVajranath Sharma
PublisherVajranath Sharma
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith & Hinduism
File Size10 MB
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