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श्रीमद्वल्लभाचार्य पुष्टिमार्ग के रहस्य को नहीं जानता और उसे भक्तिमार्गवर्णित सफलता प्राप्त नहीं होती। 'यो यदंशः स तं भजेत् ।' इत्यादि न्याय से जीव प्रभुका अंश है। इस लियें प्रभु की सेवा करनी उस का धर्म है । भगवान् सर्वत्र हैं तथा मैं भी भगवान् का हं यह भाव रख, भगवान् की सेवा करनी चाहिये । श्री महाप्रभुजी ने कहा है कि 'जीव का किसी भी देश या किसी भी काल में सेवा के सिवाय और कोई भी धर्म नहीं हो सकता । सेवा विना, अन्य धर्म की साधना यदि जीव करने लगे तो उसे दुःख की प्राप्ति के सिवाय सुख नहीं मिल सकता ।' सेवा ही भक्ति हो जाती है । भगवान् में मन का अनुस्यूत होना भक्ति है । यही महापुरुषार्थ है और इसी से भगवान् वश किये जा सकते हैं । हम यहां भक्ति और सेवा का अलग २ वर्णन करेंगे।
श्रीहरि में एक तनमन प्राण हो कर उन की परिचर्या करने को ही सेवा कहते हैं । यह सेवा तीन प्रकार की है। तनुजा, वित्तजा और मानसी । इन में मानसी सेवा उत्कृष्ट है । इस मानसी सेवा की साधन रूप ही तनुजा और वित्तजा सेवा हैं। श्रवण कीर्तन या शरीरादिक से की जाने वाली सेवा उसे तनुजा सेवा कहते हैं । तथा सन्माोपार्जित द्रव्य से प्रभु के मन्दिर, आभूषण और वस्त्रादिक