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श्रीमद्वल्लभाचार्य सम्पत्ति और इतना वैभव कोई और राजा को मिलता तो वह अपने को एक दूसरा ही विधाता समझने लगता और न जाने विभवमत्त हो कौन कौन से कार्य कर डालता । किन्तु महाराज अम्बरीष उन राजाओं में से नहीं थे। वे तो इस अतुल वैभव' को स्वप्न में मिले हुए क्षणभङ्गु की तरह नश्वर मानते थे और कभी भी इस धन सम्पत्ति के मोह में नहीं फँसे । भगवान् की भक्ति ही उन के लिये तो सबसे बड़ी भारी सम्पत्ति थी जिस के आगे वे इन्द्र कुबेर की सम्पत्ति भी तुच्छ समझते थे । उनके तो सब कार्य केवल भगवदीयत्व में ही समाप्त हो जाते थे। उन को धन से कोई सम्बन्ध नहीं था, और न वे कभी इस के लिये लालायित ही रहे । जब तक जिये श्रीहरि के चरणारविन्दों का भजन करते रहे; जब यह लीला समाप्त की तब हरिभक्तों में श्रेष्ठ गिने गये। वे स्वयं भगवदीय थे और उनकी दैनिक परिचर्या भी भगवदीय हो गई थीं। घर और राज्य की चिन्ता होते हुए भी वे हरिचरित्रों का ही चिन्तवन किया करते । राज्य सिंहासन पर बैठकर और राजाज्ञा सुनाते हुए भी वे हरिचरित्रों को ही सुनाते । वे स्वयं राजा थे, उन के भृत्यों की कमी नहीं थी किन्तु भगवान् के मन्दिर में वे अपने हाथ से बुहारी लगाते ! राजालोगों के पास जहां झूठे प्रशंसक और विलासी मित्र बैठकर राजा को