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श्रीमद्वल्लभाचार्य क्या करूं ? कहां जाऊं ? कौनसा उपाय करूं । जिससे इस दुष्ट मकर से प्राण बचें' ? ___ एकाएक गजराज को विचार उठा 'ये बलसत्तम अन्य करिगण जब मुझे ग्राहपाश से छुडाने में सफल न हुए तो बिचारी ये करिणी क्या कर सकती हैं । अब यदि यहां मेरी रक्षा करने वाला कोई है तो अशरणशरण दीनदयालु कृपार्णव भगवान् श्रीकृष्ण के सिवाय और कोई नहीं है । अतएव में भी उन ब्रह्मादिक के शरण, दुःख भंजन भगवान् हरि की शरण में जाऊं । जो ईश भक्तों का रक्षक है, कृपालु है, जिसने इतने शरणागतों की रक्षा की है चलो, मैं भी उसी की शरण जाऊं। जिस के भय से मृत्यु भगता रहता है । जिस के प्रचण्ड तेज से सूर्य तपता है। जिस के अतुल वैभव से पवन गतिशाली होता है, मैं भी आज उसी के शरण जाऊं।' इस प्रकार सोच, गजराज पूर्वजन्मशिक्षित भगवान् का परम जप करने लगा।
जब गजराज के हृदयकोष्ठ के निभृततम स्थान से उसका अन्तरात्मा बडे भक्तिभाव से चिल्ला उठा-“हे भगवन् , अखिलगुरो नारायण, आपको इस तुच्छ जीव का अत्यन्त भक्तियुक्त नमस्कार है । हे अशरण शरण नाथ ! आपका यह भक्त आज बडे संकट में फंसा हुआ है । हे कृपार्णव दीना नाथ ! इस की रक्षा कीजिये । यह आप ही का है ।