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श्रीमद्वल्लभाचार्य . चैतन्यरूप जीव भगवदीय अंशत्वेन सब के सब समान हैं । किन्तु अनुग्रह और कर्म के फल भेदसे किसी जीव को अक्षर ब्रह्मकी प्राप्ति होती है, तो किसी को स्वर्ग की प्राप्ति होती है । कोई अन्ध तामस में गिरता है तो कोई पूर्ण पुरुषोत्तम को भी प्राप्त कर लेता है। किसी को उत्तम देह मिलने पर भी उसके कर्म नितान्त गर्हित होते हैं और किसी को गर्हित देह मिलने पर भी कर्म उसके श्रेष्ठ होते हैं। कितने ही, इस संसार में ही हमें सुख मिले इस आशा वाले होते हैं, तो कोई पारलौकिक सुख के लिये चिन्तित हो उसी के साधन में प्रयत्नशील होते हैं । और कितने ही इस लोककी और परलोक की कोई भी चिन्ता न रख केवल भगवान और उनकी सायुज्य प्राप्ति की इच्छा रखते हैं । इस प्रकारकी भिन्न २ वृत्ति इस लोक में देखी जा रही है। प्रश्न यह होता है कि लोगों की यह सर्वथा मिन्न २ रुचि क्यों हैं ? इस प्रश्नका निरास पुष्टि प्रवाह और मर्यादा मार्गीय रहस्य को जान लेने से अपने आप ही हो जाता है । रहस्यका उद्घाटन यथा मति हम यहीं करेंगे।
अपने २ अधिकार में पुष्टिमार्गीय, प्रवाहमार्गीय और मर्यादा मागयि सब अलग २ हैं। तीनों के देह अलग हैं और तीनों की क्रिया भी अलग ही है । इन तीनों के फल