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श्रीमद्वल्लभाचार्य
ब्रह्म न कह कर जीव कहा जाता है । यहां दोषादिक आजाने से उस का आनंदांश तिरोहित हो जाता है । यहां तक कि वह अपने मूलस्वरूप को बिलकुल ही भूल कर बुरे भले काम करने लग जाता है । इसी लिये सुख दुःख के फल भी जीव ही को भोगने पड़ते हैं । ब्रह्म को नहीं । यह जीव जगत् में आकर अनेक सुख की आशाओं में फँसकर अध्यास (मूल) का भागी बनता है । दशप्रकार के प्राणों को, इन्द्रिय और अन्तःकरण को, अथवा देह को ही अपना स्वरूप समझना यह भूल और जिस से अपने स्वरूप की विस्मृति हो जाती है यही अविद्या है । जीव का आनन्दांश, जगत् में आने पर तिरोहित हो जाता है अतः जीव निराकार है । निरैश्वर्य है इसे आत्मा भी कहते हैं
और इसका परिमाण अणु है अर्थात् ... है। __ जीव के तीन भेद हैं । संसारी जीव, मर्यादा जीव और अनुग्रह जीव । यह तीन तरह के जीव विविध प्रकार की भगवदिच्छा से ही जगत् में पैदा होते हैं। पहली प्रकार के जीव जगद्रूप भगवान् से द्वेष करते हैं और प्रवृत्ति निवृत्ति आदि का उन्हे ज्ञान नहीं होता इस लिये जन्म मरणादि के भय को ही भोगा करते हैं । इन्हें आसुरी जीव, संसारी जीव
और चर्षणी कहते हैं। प्रपञ्च का बोझ बढाने के लिये अथवा जगत् का खेल बढता रहे इसी लिये इनकी उत्पत्ति हुई है।