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श्रीमद्वल्लभाचार्य यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च
यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति । यथा सतः पुरुषात् केशलोमानि
तथाक्षरात्संभवतीह विश्वम् ॥ अर्थात्-जिस प्रकार मकडी जाला फैलाती है और अपनी इच्छानुसार ही उसे समेट भी लेती है अथवा जैसे पृथ्वीमें औषधि पैदा होती हैं । जिस मांति जीवित मनुष्य के केशलोमादि उत्पन्न होते हैं वैसे ही अक्षरब्रह्म से यह जगत् उत्पन्न होता है। __ नामरूपात्मक सारा जगत् ब्रह्म ही है । ब्रह्म जगत् को उत्पन्न करता है मानो स्वयं उत्पन्न किया जाता है। वही रक्षा करता है और वही मानों रक्षित भी जगरूप से होता है । अपनी इच्छा से वह जगत् का संहार करता है। मानो आप ही संहार किया भी जाता है ।
शास्त्रोसें जाना जाता है कि ब्रह्म को रमण की इच्छा हुई और रमण अकेले नहीं हो सकता इसी लिये एक खिलौना भगवान् ने बनाया । बस वही जगत् हो गया । __ भगवान् के तीन अंश हैं सत् , चित् , और आनन्द । जो पदार्थ ब्रह्म के सदंश मे से निकलते हैं लोक मे वे जड पदार्थ कहाते हैं। जो चिदंश में से निकलते हैं वे जीव होते हैं और जो उन के आनंदांश में से निकलते हैं वे