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१८२ श्रीमद्वल्लभाचार्य था मानों में सर्वज्ञ हो गया हूं । आज आपने मेरी आंखें खोल दी । मैं महा मूर्ख हूं । कृपाकर मुझे इस बात का रहस्य बतलाइये । पुत्र का यह विनय सुन ऋषि बोले___ 'यथा सौम्येकेन मृत्पिण्डेन
सर्व मृण्मयं विज्ञातं भवति । वाचारंभणं विकारो नाम
धेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्। अर्थात्-“हे वत्स श्वेतकेतो! जिस प्रकार माटी के एक पिण्ड को जान लेने से सर्व मिट्टि के पदार्थों का ज्ञान हो जाता है । उसी प्रकार एक ब्रह्म को ही जान लेने से ब्रह्म में से उत्पन्न हुए सर्व कार्यरूप जगत् को जाना जा सकता है। मृत्तिका में से जो घट उत्पन्न हुआ है उसकी चौडाई और सकडाई रुप विकार है वह वाणी की क्रिया रूप ही है। मिट्टी से घडा भिन्न है यह बात कुछ उसके विभिन्न आकारों से सिद्ध नहीं होती"। जिस प्रकार पुरुष सोता हुआ हो, बैठा हुआ हो, खडा हुआ हो वह भिन्न नहीं है उसी प्रकार भिन्न २ अवयव रखकर मिट्टी भी भिन्न २ रूपों में बॅटी हुई है । इसका अर्थ मृत्तिका से घडा अलग है यह नहीं होता । कारण रूप मृत्तिका से घटादिक कार्य भिन्न नहीं हैं । इसी लिये कहा गया है 'मृत्तिकेत्येव सत्यम्' । इस लिये ब्रह्म में से जगत् की