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और उनके सिद्धान्त । १८१ उत्तम ब्राह्मण संतान होने से बुद्धि का अभाव नहीं था। चारह वर्ष पर्यन्त उसने कठिन तप कर विद्या की उपार्जना की । जब वह चौवीस वर्ष का युवा हुआ तब उसने समग्र वेद, इतिहास, पुराण और दर्शन शास्त्र का अच्छी तरह से अभ्यास कर लिया था। इस समय उसे अभिमान हुआ और अपने जितना कोई भी पढा नहीं है यह वह मानने लगा । उस की यह अवस्था देख पिता ने उस के अभिमान् की निवृत्ति करने के अर्थ पूछा
यन्नु सौम्येदं महासना अनूचमानी स्तब्धोस्युत तमादेशमप्राक्षः ? येनाश्रुतं श्रुतं भवत्यमतं मतमविज्ञातं विज्ञातमिति । __ ऋषि ने कहा 'हे सौम्य श्वेतकेतो! तू जो यह मान रहा है कि मेरे सदृश विद्वान् और कोई नहीं है और इतना स्तब्ध और उद्धत हो गया है तो तू यह तो बता कि जिस के जानने से नहीं सुना हुआ भी सुना हुआ हो जाय, न माना गया हो वह भी (विचार से) मान लिया जाता है और जाना गया हुआ निश्चय रीति से जाना जा सकता है। पिता का यह प्रश्न सुन श्वेतकेतु विचार में पड़गया और उसे अपने उद्धत स्वभाव पर बडा अफ़सोस हुआ । वह अपने पिता के पैरों पर गिर पडा और बोला-'गुरो, मैं वडा मूर्ख हूं ! मैने अल्पाभ्यास करके ही यह जान लिया