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१७४ श्रीमद्वल्लभाचार्य
अर्थात्-शास्त्रों में फलसिद्धि के लिये भगवान् के सर्व रूपों का भजन करने का कहा है। किन्तु परब्रह्म के विषय में और फिर भी सायुज्यकी कामना के लियें आदिमूर्ति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ही सेव्य हैं। 'ब्रह्मवाद' क्या है इसका दिग्दर्शन बहुत संक्षेप में
., यहां पर कराया जाता है । इसका और इसके 'ब्रह्मवाद'
स्वरूप का विस्तृत विवेचन आगे चलकर किया जायगा।
श्रीमद्वल्लभाचार्य ने ब्रह्मवाद की व्याख्या अपने ग्रन्थ में यों की हैआत्मैव तदिदं सर्वं स्मृज्यते सृजति प्रभुः। त्रायते त्राति विश्वात्मा हियते हरतीश्वरः॥शा.१८३ ___ अर्थात् यह जो भी कुछ दीखता है वह सब निश्चय ही
आत्मा है (ब्रह्म ही है) वह स्वयं सृष्टि करता है और वह आपही सृष्टि भी बन जाता है । विश्वात्मा आप रक्षण भी करता है और रक्षित भी आप ही होता है। वह हरण भी करता है और वह आप भी हरण कर लिया जाता है। यही विशिष्टता और विचित्रता है ।। आत्मैव तदिदं सर्व ब्रह्मैव तदिदं तथा । इति श्रुत्यर्थमादाय साध्यं सर्वैर्यथा मतिः॥ अयमेव ब्रह्मवादः शिष्टं लोहाय कल्पितम् ॥शा-१८४