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श्रीमद्वल्लभाचार्य अर्थात्-शास्त्रों में फलसिद्धि के लिये भगवान् के सर्व रूपों का भजन करने का कहा है। किन्तु परब्रह्म के विषय
में और फिर भी सायुज्यकी कामना के लिये आदिमूर्ति __ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ही सेव्य हैं। 'ब्रह्मवाद' क्या है इसका दिग्दर्शन बहुत संक्षेप में
, यहां पर कराया जाता है । इसका और इसके 'ब्रह्मवाद
२ स्वरूप का विस्तृत विवेचन आगे चलकर किया जायगा।
श्रीमद्वल्लभाचार्य ने ब्रह्मवाद की व्याख्या अपने ग्रन्थ में यों की हैआत्मैव तदिदं सर्व स्थज्यते स्सृजति प्रभुः। त्रायते त्राति विश्वात्मा हियते हरतीश्वरः॥शा.१८३ ___ अर्थात् यह जो भी कुछ दीखता है वह सब निश्चय ही आत्मा है (ब्रह्म ही है) वह स्वयं सृष्टि करता है और वह आपही सष्टि भी बन जाता है । विश्वात्मा आप रक्षण भी करता है और रक्षित भी आप ही होता है । वह हरण भी करता है और वह आप भी हरण कर लिया जाता है । यही विशिष्टता और विचित्रता है । आत्मैव तदिदं सर्वं ब्रह्मैव तदिदं तथा । इति श्रुत्यर्थमादाय साध्यं सर्वैर्यथा मतिः॥ अयमेव ब्रह्मवादः शिष्टं मोहाय कल्पितम्॥शा-१८४