________________
और उनके सिद्धान्त । १७३ अर्थात्-वेद के पूर्वकाण्ड में (क्रिया शक्ति विशिष्ट) यज्ञ रूप हरि का निरूपण किया गया है । ज्ञानप्रविष्ट ब्रह्म रूपका उत्तरकाण्डमें निरूपण है । और (क्रिया तथा ज्ञान उभयविशिष्ट) अवतारी हरि श्रीकृष्ण का श्रीभागवत मे निरूपण हुआ है। सूर्यादिरूपधृक्ब्रह्म काण्डे ज्ञानांगभीर्यते।। पुराणेष्वपि सर्वेषु तत्तद्रूपो हरि स्तथा ॥नि.शा.११॥ ___ अर्थात्-सूर्यादि रूप धारण करनेवाले हरि ब्रह्मकाण्ड में ज्ञान के अंग कहलाते हैं और उसी प्रकार सर्व पुराणों में भी जो जो नाम लिखे गये हैं वे वे रूप श्रीकृष्ण ही हैं। पंचात्मकः स भगवान् विषडात्मकोभृत्पंचदयीशतसहस्रपरामितश्च ॥ एकः समोप्यखिलदोषसमुज्झितोऽपि सर्वत्र पूर्णगुणकोपि बहूपमोभूत् ॥ नि.शा.४२॥ ___ अर्थात्-वही ब्रह्म पांच रूप धारण करने वाला है । वही द्वादश स्वरूपात्मक है । दशरूप भी वह आप ही है इसी प्रकार शत, सहस्र और असंख्य विभूतिरूप भी वह आपही है। वह सर्वत्र और सवों में एक ही है । सम है, सर्व दोषविवर्जित है । सर्वत्र पूर्ण गुणवान् भी अनन्त उपमा युक्त है। भजनं सर्वरूपेषु फलसिद्धयैतथापि तु । आदिमूर्तिः कृष्ण एव सेव्यः सायुज्यकाम्यया॥१३॥