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श्रीमद्वल्लभाचार्य चाहिये । जिस प्रकार जन्म से शूद्रप्राय ब्राह्मण भी गायत्री ग्रहण करने से द्विज हो जाता है और फिर उसे ब्राह्मणों
चत कर्मों के करने का अधिकार हो जाता है उसी प्रकार ब्रह्मसंबंध मंत्र ग्रहण करने से सेवा में अधिकार हो जाता है । ब्रह्मसंबंध बिना सेवा में अधिकार नहीं हो सकता ।
निर्दोष होने के लिये अहन्ता ममता का त्याग होना चाहिये । ब्रह्मसंबंध लेने पर और मन्त्र के आशय पर हरघडी ध्यान रखने पर अहन्ताममता नाश हो जाती है । जीव को समझ लेना चाहिये कि ये घर, धन, पुत्र, कलत्र, सब ईश्वर के ही है। मेरा कुछ भी नहीं है । मेरी इनपर अहन्ताममता करना अयोग्य और मेरी यह चेष्टा अनधिकार चेष्टा है।
मनुष्य इस लोक में जिसके ऊपर अधिक प्रीति रखता आत्मनिवेदन हो वह सर्व वस्तु जैसे देह, धन, प्राण,
क्या है ? पुत्र, कलत्र समग्र भगवान् के अर्पण करना चाहिये । अर्थात् शास्त्रकी आज्ञा के अनन्तर इनको, प्रभुके और तदीय होनेसे, अपने उपयोग में लाना चाहिये । इसीका नाम है आत्मनिवेदन । इस आत्मनिवेदन के अनन्तर भगवान् के साथ जो अंशांशी संबंध नित्य है उसका वारंवार स्मरण करना इसी को ब्रह्मसंबंध कहते हैं ।