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और उनके सिद्धान्त ।
आत्मसमर्पण का भाव देखिये आचार्यचरण किस योग्यरीति से प्रतिपादित करते हैं । आप लिखते हैं
गृहं सर्वात्मना त्याज्यं तचेत्त्यक्तुं न शक्यते । कृष्णार्थ तत्मयुंजीत कृष्णोनर्थस्थवारकः ॥
अर्थात्-घर की ममता सर्वथा त्याज्य है । यदि वह ममता छोडी न जा सके तो उसे श्रीकृष्णके उपयोग में लावे । भगवान् श्रीकृष्ण सब अनर्थों के वारक हैं । ___ इस आत्मनिवेदन को सर्वत्र और सर्वदा ध्यान में रखना चाहिये यह महाप्रभुजी की आज्ञा है । अहन्ता ममता का नाश करने के लिये यही सर्वोत्तम उपाय है। इससे यह विदित हो जाता है कि मेरा कुछ भी नहीं है । सब प्रभु का ही है। मैं भी प्रभु का ही हूं और प्रभु ही मेरा सर्वस्व है । मैं प्रभु के आधीन हूं इस लिये उन की आज्ञानुसार ही मुझे चलना चाहिये । दासत्व स्वीकारने से मनमें दीनता रहती है इस लिये आत्मनिवेदन को प्रत्येक समय में याद रखना चाहिये।
आत्मसमर्पण एक वडा भारी यज्ञ है यह हम पूर्व कह आत्मसमर्पण चुके हैं। सब शास्त्र यज्ञ करने का उपदेश __ क्या है ? दे रहे हैं। क्यों कि विना यज्ञ के दुःखकी निवृत्ति और सुखकी प्राप्ति हो नहीं सकती । पृथ्वी अपना तत्त्व देकर वीजका पोषण करती है यह पृथ्वी का यज्ञ है।