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और उनके सिद्धान्त । १६१ श्रीमहाप्रभुजीने भक्तिमार्ग को सर्वजीवों के उद्धारार्थ प्रचलित किया है । इस दीक्षा को लेनेका सवों का अधिकार समान रूप से है। जिस प्रकार सूर्य के तेज का सब उपयोग कर सकते हैं, जैसे उसमें भेदभाव नहीं है उसी प्रकार भक्तिमें भी जातिभेद या वर्णभेद कुछ भी नहीं है। हर कोई मनुष्य इस दीक्षा को ले सकता है और सवों के दोषों की निवृत्ति समान रूप से ही होती है । ब्रह्मसंबंध आत्मनिवेदन पूर्वक भगवच्छरणागति को सिद्ध करनेवाला है । अत एव इस में सव देह जीव का समान अधिकार है । भगवान् ने भी कहा हैमां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येपि स्युः पापयोनयः । स्त्रियो वैश्यास्तथा शुद्रास्तेपि यान्ति परां गतिम् ॥ ___ अर्थात् हे अर्जुन, मेरे शरण आनेवाले स्त्री, वैश्य, शूद्रादिक तथा चाहे जितने पापवाले हों सव श्रेष्ठगति को प्राप्त होते हैं।
जिस प्रकार पतित ब्राह्मणों का संध्यावन्दनादि कर्म "ब्रह्मसम्बन्ध करने का अधिकार नहीं है उसी प्रकार लिये बिना ब्रह्मसम्बन्ध लिये विना भी सेवा में अधिस्वरूप सेवा - का अधिकार कार नहीं है । इस लिये आत्माके कल्यानहीं होता।" णार्थ और सेवा में अधिकार हो इस लिये जीव को गुरु के पास से दीक्षा अवश्य ग्रहण करनी