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श्रीमदल्लभाचार्य के पास मन्त्र ग्रहण न कर सदा आचार्य गुरुदेव के पास ही दीक्षा लेनी चाहिये।
गुरु के मुख से कृष्णमन्त्र जिसके कर्णविवर में प्रवेश करता है। उसे शास्त्रकारो ने महापवित्र गिना है । जिसकी इच्छा ब्रह्मसम्बन्ध लेने की हुई हो उसे परम भाग्यवान् मानना चाहिये।
शास्त्रों में लिखा है'तविज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छेत्समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् । अर्थात् जिसे ज्ञानकी इच्छा हो ऐसे शिष्य को दीन हो गुरु के पास जाना चाहिये।
श्रीगीताजी में भी कहा हैतद्विद्धि प्राणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥
भगवान् ने आचार्य को अपना ही स्वरुप माना है आपने कहा है 'आचार्य मां विजानीयात् ' अर्थात् आचार्य मेराही स्वरूप है यह निश्चय जानो । इसी लिये हमारे यहां ब्रह्मसंबंध की दीक्षा भी आचार्य द्वारा ही ली जाती है। ___ ब्रह्मसंबंध दीक्षा, यह मानो एक महायज्ञ है । इस यज्ञ ब्रह्मसंबंध दीक्षा में कोई भी प्रकारका दोष आता ही की अवश्यकता नहीं है।