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और उनके सिद्धान्त ।
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विना और आचार्य की कृपाके बिना भगवान् का सेवक कोई भी मनुष्य नहीं हो सकता । इस लिये वैष्णवी दीक्षा तो अवश्य लेनी चाहिये । दीक्षा वाले पर ही भगवान् प्रसन्न होते हैं । इस लिये मनुष्य मात्र को ब्रह्मसम्बन्ध दीक्षा लेनी चाहिये । जिसने आचार्य के पास से दीक्षा ग्रहण की है उसे भगवान् अवश्य सिद्धि प्रदान करते हैं ।
जिसने दीक्षा पूर्वक, इस ब्रह्मसम्बन्ध मन्त्रको अपने आचार्य को साक्षी रखकर, लिया है उसके कोटि जन्मके पाप नष्ट हो जाते हैं। यह ब्रह्मसंबंध दीक्षा आचार्य के पास से ही ली जाती
र है। वैष्णव या और किसी के पाससे भी द्वारा ही मन्त्र दीक्षा लेने से मनुष्य दोष का भागी होता
काग्रहण है। जो भगवान् का भक्त होता है वह आचार्यके ही द्वारा मत्र ग्रहण करता है । जो पुरुष अदै - ष्णव या अन्य वैष्णव के पास दीक्षा ग्रहण करता है उसकी कभी भक्ति सिद्ध नहीं होती। वह श्रीकृष्ण से विमुख हो जाता है । जो मनुज्य आचार्य के अतिरिक्त और किसी के भी पास दीक्षा ग्रहण करता है उसके सर्व धर्म कर्म निष्फल हो जाते हैं। और कोई भी कार्य में उसे अधिकार नहीं रहता । इसालये वैष्णव आचार्य के अतिरिक्त किसी