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और उनके सिद्धान्त । १५५ संबंध मन्त्रके अर्थानुसार इस जीवका ईश्वर के साथ जो सहस्र २ वर्ष पर्यन्त विछोह रहा है और जिसके द्वारा उस संबंध में जो शैथिल्य आ गया है उसे पुनःस्थापित करने की प्रार्थना की है। इसी को पारिभाषिक शब्दो में ब्रह्म संबंध कहते हैं। सर्व शक्तिमान ईश्वर के साथ संबंध होना इसे ही ब्रह्मसंबंध कहते हैं । ब्रह्मसंबंध हो जानेपर जो शास्त्रीय पांच प्रकार के दोष होते हैं उनकी निवृत्ति हो जाती है इसी बात को महाप्रभुजी भी कहते हैंब्रह्मसंबंधकरणात्सर्वेपां देहजीवयोः। सर्वदोषनिवृत्तिर्हि दोषाः पञ्चविधाः स्मृताः॥८॥ अब जरा ब्रह्मसंबंध पर आलोचना कर देखें । जीव ब्रह्म का अंश है यह बात क्या वेद, क्या गीता, और क्या सूत्र या भागवत् सर्वत्र प्रमाणित है । जीव ब्रह्म का अंश होनेसे निर्दोष है। किन्त यह निदोपत्व स्वरूपतः है स्वभावतः नहीं । किन्तु कितने ही स्वभावतः दोषों के जीव में आजाने से ब्रह्म का संबंध जीव भूल जाता है । इस अपने भूले हुए संबंध की पुनः याद दिला देना गुरु का कार्य है । जिस समय जीव आचार्य या गुरु की साक्षी में अत्यन्त दीन हो अपनी अवस्था का ध्यान रख अपने और ब्रह्म के संबंवकी याद करता है, सक्षेप में यही ब्रह्मसंबंध है । जो जीव अनादि कालसे अनेक दोषों के आ