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श्रीमद्वल्लभाचार्य
हैं । इसी लिये सम्प्रदाय में उनको मूर्ति न कह कर स्वरुप कहते हैं । ये स्वरुप केवल मन्त्राधीन नहीं हैं । भक्तिभाव का प्राधान्य होने से यहां आवाहन विसर्जनादि नहीं होता। इसी से इसे प्रतीकोपासना न कह कर स्वरुप सेवा कहते हैं । भगवान् के अनन्त स्वरुप हैं । अतः भगवान् भी उसी धातुमय स्वरुप अथवा मृण्मय स्वरूप में आविर्भूत हो जाते हैं । भक्तकी सेवा और भक्ति जब पराकाष्ठा को पहुंच जाती है तब भगवान् स्वयं उस स्वरुप में प्रत्यक्ष प्रकट हो भक्त को दर्शन देते हैं। इसी लिये स्वरुप के श्रीहस्त को भगवान् का श्रीहस्त, चरण कमल को चरणकमल, एवं प्रयेक अवयव को साक्षात् भगवान् का अवयव समझा जाता है। हमारे यहां ब्रह्मको व्यापक मानते हुए भी साकार माना है । स्वरुप को जो वस्त्रादिक धारण कराये जाते हैं वे भी साक्षात् श्रीहरि को ही धारण कराये जाते हैं।
परब्रह्म श्रीकृष्ण हैं । इनको जब सृष्टि की इच्छा हुई तब आपने प्रकृति का निर्माण किया और इससे महाविष्णुकी उत्पत्ति हुई । ये महाविष्णु भगवान् के सोलहवे अंश थे। यह बात ब्रह्मवैवर्त पुराण में लिखी है । इस से भी भगवान् सर्वोपरि गिने जा सकते हैं । श्रीमद्भगवद्गीता में लिखा है-'विष्टभ्याहमिदं सर्वमेकांशेनस्थितो जगत् ।' अर्थात् यह जगत् श्रीकृष्णके बहुत छोटे से भाग में समा