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और उनके सिद्धान्त । १४७ इस श्रीमद्भागवत के कथन से श्रीकृष्ण ही पूर्ण पुरुषोत्तम सिद्ध होते हैं।
कृषिभूवाचक शब्दो णश्च निवृतिवाचकः । तयोरैक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ॥
कृष्ण संज्ञा में दो शब्द है। इस में पहले शब्द कृष् का अर्थ होता है सत्ता और दूसरे णकार का अर्थ आनन्द है। इन दोनों के एक होने से श्रीकृष्ण का अर्थ सच्चिदानन्द होता है।
श्रीकृष्ण द्विभुज और चतुर्भुज रुप से अनेक स्थलो में विराजते हैं। वैकुण्ठ में चतुर्भुज स्वरुप से और गोलोक, गोकुल में द्विभुज रुप से लक्षित होते हैं । अपने स्वरूपवल से निःसाधनों का उद्धार करने के लिये भगवान् का अवतार होता है । नन्दब्रज में श्रीकृष्ण का प्रकट होता भी इसी लिये था । आपने अनेक प्रकार की लीला ब्रज में की थी। उन में से गोवर्धनधारण लीला वडी अद्भुत थी। नाथद्वार में स्थित श्रीनाथजी का स्वरूप उसी गोवर्धनधारण के समय का है।
पुटिमार्ग में जितनी सेव्य भगवान् की मूर्ति हैं वे सब साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण की ही साक्षात् स्वरूपभूत हैं। भक्तिमार्ग की मूर्तियो में साक्षात् पूर्ण पुरुषोत्तम पिराजमान हैं । अतः वे मूर्ति ही साक्षात् भगवान् को स्वरुपात्मक