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श्रीमद्वल्लभाचार्य अर्थात्-अपने २ आश्रम मर्यादा का आचरण करते २ जब ब्रह्म का अनुभव और भगवन्माहात्म्य का ज्ञान होने लगे और इसके अनन्तर प्रभु में स्नेह होने लगे तो वह भक्ति अथवा स्नेह ब्रह्मभाव उत्पन्न करता है । अर्थात् इस अवस्था पर पहुंच जानेपर उसे ब्रह्म का साक्षात्कार होता है । पूर्वोक्त सर्वगुणसहित स्नेह यदि प्रभुसेवा सहित हो तो वह सेवा त्रयोदश गुण वाली कहलाती है । कालान्तर में यही सेवा आनन्दरूपा हो कर फल रूपा हो जाती है। उस उत्कृष्ट प्रेमा भक्ति का अनुभव करने में वर्णाश्रमादि वैदिक धर्म प्रतिबन्धक होने लगते हैं । इस अवस्था में इन धर्मों का परित्याग करना पडता है। किन्तु जो ऐसी भूमिका में नहीं पहुंचे उनके लिये तो वर्णाश्रमवर्म सर्वथा मान्य हैं।'