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और उनके सिद्धान्त।
उस समय तो-- 'देहं च नश्वरभवस्थितमुत्थितं वा ।' 'वासो यथा परिकृतं भदिरामदान्धः ॥'
उस महात्मा की अवस्था मदिरा के नशे में मत्त हुए मनुष्य जैसी हो जाती है जो अपने आप को भी भूल जाता है । और अपने ही आनन्द में मस्त हो जाता है। __किन्तु स्मरण रहे यह अवस्था अत्यन्त ही दुर्लभ है। कहा गया है_ 'एतादृशस्तु पुरुषः कोटिष्वपि सुदुर्लभः ।' अर्थात् ऐसा पुरुष करोडों महात्मा ओ में भी दुर्लभ है।
इस 'एतादृशस्तु०' पर प्रकाश लिखते हुए आचार्य श्री अपने निवन्ध में लिखते हैं_ 'एतादृशस्तु दुर्लभः । ज्ञानमिश्रो भक्तः प्रेभयुक्तस्ततोपि दुर्लभस्तत्रापि सदा प्रेमप्लुतः । तस्य भगवत्सायुज्यं भवतीति किं वक्तव्यम् ।'
अर्थात्-ऐसा महात्मा पुरुष तो अत्यन्त दुर्लभ है । लोक में ज्ञान मिश्र भक्त मिलने कठिन नहीं हैं किन्तु प्रेमयुक्त ज्ञानी भक्त, लोक में मिलना दुर्लभ है । इस में भी जो सदा भगवत्प्रेम में मग्न रहता हो अर्थात् जिसने लौकिकालौकिक सर्व प्रपंचों का परित्याग कर दिया है और