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श्रीमदल्लभाचार्य लियें, उनने जरा भी संकोच रहित हो, लौकिक आचार विचार और मर्यादा तुच्छातितुच्छ समझ कर छोड दिये थे।
यह है प्रेम की पराकाष्ठा । ऐसे सुन्दर भाव अन्यत्र प्राप्त करना दुर्लभ है । भगवान् स्वयं ऐसे भक्तों की सुध रखते हैं । आप प्रतिज्ञा करते हैं
'ये त्यक्तलोकधर्माश्च मदर्थे तान्बिभर्म्यहम्' अर्थात्-जिसने भगवान के लिये लोक धर्म छोड दिये हैं और भगवान् में ही जो तन्मय हो गया है, भगवान् स्वयं उस की रक्षा करते हैं।
जब व्यसन की दशा में भक्त पहुंच जाता है उस समय उस की अवस्था यों हो जाती है__ "ता नाविदन्मय्यनुषङ्गबद्धधियः स्वमात्मानमदस्तथेदम् । यथा समाधौ मुनयोधितोये नद्यः प्रविष्टा इव नामरूपे ॥" अर्थात्-उस समय भक्त भगवान् में इतना तो तन्मय और तल्लीन हो जाता है कि जिस प्रकार मुनि को समाधि में अपने शरीर का अनुसन्धान नहीं रहता अथवा जिस प्रकार समुद्र में नदी अपने नाम और रूप सहित प्रविष्ट हो जाती है उसी प्रकार भक्त को भी अपने देहादिक का बोध नहीं रहता।