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१३६ श्रीमद्वल्लभाचार्य लियें, उनने जरा भी संकोच रहित हो, लौकिक आन विचार और मर्यादा तुच्छातितुच्छ समझ कर छोड दिये
यह है प्रेम की पराकाष्ठा । ऐसे सुन्दर भाव अन् प्राप्त करना दुर्लभ है । भगवान् स्वयं ऐसे भक्तों की । रखते हैं । आप प्रतिज्ञा करते हैं
'ये त्यक्तलोकधर्माश्च भदर्थे तान्बिभर्म्यह अर्थात्-जिसने भगवान् के लिये लोक धर्म छोड दिरे
और भगवान् में ही जो तन्मय हो गया है, भगवान् र उस की रक्षा करते हैं।
जब व्यसन की दशा में भक्त पहुंच जाता है । समय उस की अवस्था यों हो जाती है
"ता नाविदन्मय्यनुषङ्गबद्धधियः स्वमात्मानमदस्तथेद यथा समाधौ सुनयोब्धितोये नद्यः प्रविष्टा इव नामरूपे अर्थात् उस समय भक्त भगवान् में इतना तो तन्मय । तल्लीन हो जाता है कि जिस प्रकार मुनि को समाधि अपने शरीर का अनुसन्धान नहीं रहता अथवा जिस प्र समुद्र में नदी अपने नाम और रूप सहित प्रविष्ट जाती है उसी प्रकार भक्त को भी अपने देहादिक बोध नहीं रहता।