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और उनके सिद्धान्त।
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स्नेहाद्रागविनाशस्थादासक्त्या स्याद् गृहारुचिः। गृहस्थानां बाधकत्वमनात्मत्वं च भासते। यदा स्याद्व्यसनं कृष्णे कृतार्थः स्यात्तदैव हि ॥ इस व्यसन जैसी उत्तमोत्तम कक्षा पर पहुंच जाने पर भक्त को सर्वात्मभाव होने लगता है। इस अवस्था में वह लौकिकालौकिक कर्म से परे हो जाता है। लोक और वेद इस महात्मा को अपने प्रभाव में नहीं लाते। उसे तो उस समय लौकिक वैदिक कर्म का बोध भी नहीं रहता। उस समय उसकी अवस्था बहुत ही ऊंची हो जाती है । उसे प्रभु के सिवाय यहां कुछ भी नहीं दिखाई देता । जडजंगम सब प्रभुमय हो जाता है। किन्तु यह अवस्था किसी ही भाग्यवान् को प्राप्त हो सकती है । बडे २ समर्थ ऋषि मुनि, प्रल्हाद, अम्बरीप, ध्रुव इत्यादि भक्त गण भी इस भक्ति की पराकाष्ठा को पहुंच नहीं सके । इस भगवद्भक्ति के इतिहास में केवल श्रीगोपीजन ही इस शुद्ध पुष्टि भक्ति को प्राप्त करने में सौभाग्यशालिनी हुई थीं।।
देखिये, ऐसे शुद्ध पुष्टि भक्त के लिये भगवच्छास्त्र श्रीमद्भागवत में कैसा मनोहर वर्णन है । वहां लिखा है
'ता मन्मनस्का मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तलौकिकाः।।'
अर्थात्-उन का चित्त केवल मुझ में मिल गया था। उन के प्राण मुझ में थे-मैं ही उन का प्राण था। मेरे