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श्रीमद्वल्लभाचार्य
हम अन्यत्र कह आये हैं कि भगवच्छास्त्रों में स्नेह को ही भक्ति कहा गया है । यह स्नेह अथवा भक्ति सामान्य या विशेष भाव को छोड कर कहें तो भगवदनुग्रह से प्राप्त होने वाली वस्तु है । इस लिये इसे पुष्टि भक्ति कहते हैं। इस पुष्टि भक्ति के भी चार भेद हैं जिसका वर्णन हम अन्यत्र कर आये हैं । इन चारो में 'शुद्ध पुष्टि भक्ति' सर्वोत्तम, स्वतन्त्र, शुद्ध और अत्यन्तिकी अर्थात् अन्तिम फल रूपा कही गई है । यह शुद्ध पुष्टि भक्ति प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है इस लिये इसका निरूपण नहीं हो सकता । यह बात हम ही नहीं कहते श्रीमद्वल्लभाचार्य ने भी यही कहा है
'भक्तिः स्वतत्रा शुद्धा च दुर्लभेति न सोच्यते ।' अर्थात् शुद्ध और स्वतन्त्र भक्ति दुर्लभ है-अत्यन्तासक्ति साध्य और भगवत्कृपा से प्राप्य है इस लिये इस का यहां वर्णन नहीं किया जाता।
श्रीविठ्ठलनाथजी महाराजने अपने भक्ति हंस नाम के ग्रन्थ में कहा है__ स्नेहोत्पत्ति के अनन्तर अपने व्यसन से उत्पन्न जो गुण गानादि वह उत्तम पुष्टि भक्ति है।'
श्रीकृष्णचन्द्र में 'व्यसन' होना-चैन न पडना यही भक्त के लिये उत्तमोत्तम फल है । किन्तु ऐसा होना यह