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________________ १०८ श्रमिद्वल्लभाचार्य कर रहा हूं कि मेरी आत्मा सन्तुष्ट नहीं हुई है । दिल गवाही दे रहा है कि अभी मुझे कोई सर्व श्रेष्ठ कार्य और भी करना बाकी है । भगवन् , आप पर मेरी बडी श्रद्धा है। आपको मैं एक भगवान् का परमानुग्रह सम्पन्न भक्त समझता हूं। मुझे विश्वास है कि मेरी हृदय ग्रन्थी को आप ही खोलेंगे । क्या मुझे आप इस रहस्य को समझावेंगे ?' देवर्षि विप्रर्षि के हाथ को अपने हाथ में लेते हुए प्रीति पूर्वक बोले-"ब्रह्मन् , मैं आपके असन्तोष के कारण को जानता हूं सच कहूं तो कह सकता हूं कि मैं आप के पास भी उसी के लिये आया भी हूं। मेरी समझ में तो यह है कि आप ने इतना परिश्रम किया वह भी व्यर्थ गया । मनुष्य तो स्वभाव से ही कर्म में प्रवृत्ति करने वाला है आप ने इसी को और उत्तेजन देकर उसे और भी प्रवृति शील बना दिया। अब, जिस प्रकार तूफान के थपेडों से नाव इधर से उधर और उधर से इधर भटका करती है उसी प्रकार जीव की भी दशा होगी । उसे स्थान तो कहीं मिलेगा ही नहीं ! मैं क्या कहूंपुनः कहना यही है हि के चरित्र, धर्म, और नहीं किये हैं । और यह आप ठीक समझिये तक
SR No.010555
Book TitleVallabhacharya aur Unke Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVajranath Sharma
PublisherVajranath Sharma
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith & Hinduism
File Size10 MB
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