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और उनके सिद्धान्त।
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क्यान के साथ पूछा-भगवन् , आप की आत्मा तो प्रसन्न है ? आप अपने शरीर और मनसे तो प्रसन्न हैं न? आप के अभी २ बनाए हुए पुराण और वेदोंका योग्य सम्पादन हमने देखा है । विशेष कर भारत देखकर तो हम बडे प्रसन्न हुए हैं । आपने इस ग्रन्थ को लिखकर जीवों पर जो उपकार किया है वह सर्वथा प्रशंसनीय है । किन्तु महात्मन् , मुझे क्षमा करना, आपने ऐसे सर्वार्थपरिहित ग्रन्योंका प्रणयन किया है फिर भी, आज मैं देख रहा हूं कि आप उदास हैं, आपके मुखसे स्पष्ट लक्षित हो रहा है कि आप इतने कृतकार्य होकर भी अपने आपको अकृतकार्य जैसा मान रहे हैं । यह क्यों ? आप इसका कारण मुझे बतायेंगे? ___ भगवान् व्यासजी नारदजी के इस प्रश्न पर कुछ मुसक्याये । वोले-'देवर्षि, आपका कहना यथार्थ है । मेरा मन आज सत्य ही उदास है । आपने कहा सो ठीक है कि मैने मनुष्य के दुःखको देखकर उसके उपायमें भारत जैसे उत्तम ग्रन्थ का प्रणयन किया है और वह एक उत्तम कार्य हुआ है । यह भी ठीक है कि भारत का तो केवल व्यपदेश है-वास्तव में कहा जाय तो इसमें मैने वेदोंका सार
और अर्थ रख दिया है । इसी में स्त्री और शूद्रों के धर्म की व्यवस्था भी लिख दी है । किन्तु फिर भी मैं अनुभव