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श्रीमद्भाचार्य सम्पादन कर के भी जब वे अपने आपको असम्पन्न मानने लगे तो उनको वडा दुःख हुआ और सोचने लगे कि यह क्या बात है ? मैने इतिहास और पुराणोंकी रचना करके लोगों को ऐसे कल्याणकर मार्ग का अनुसरण करने वाले बना दिये फिर भी मेरी आत्मा सन्तुष्ट क्यों नहीं होती? __ उस समय भगवान् अंशुमाली अपने सारथी सहित अपने क्रीडाक्षेत्र में आरहे थे । पक्षीगण अपने मधुर कलरव से आश्रम की स्वाभाविक शान्ति में व्याक्षेप डालना चाहते थे । आश्रम के अन्य प्राणी अपने अपने कार्य में व्यस्त थे और भगवान् व्यास अपनी चिन्ता में सरस्वती नदी के तट पर बैठ कर एकाग्रचित्त हो अपने कार्य पर सुसंयतदृष्टि दे रहे थे और अपनी आत्मा के असन्तोष के कारण को ढूंढ रहे थे इतने में देखा भगवान् श्रीकृष्ण के नारद, वीणा की इंकार करते हुए अपनी स्वाभाविक मुसक्यान के साथ धीरे २ उन्हीं की तरफ आ रह हैं।
व्यासजी इनके आगमन पर बहुत प्रसन्न हुए। खास कर इस अवसर पर, जब कि वे एक अत्यन्त गम्भीर प्रश्न के उत्तर में अव्यवस्थितचित्त हो रहे थे, नारदजी का आगमन उन्हें वडा अच्छा मालुम हुआ।
व्यासजी के अतिथि शिष्टाचार के अनन्तर श्रीनारद ने साधारण उपचार के तौर पर अपने विश्वविमोहक मुस