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और उनके सिद्धान्त । १०१ वर्णाश्रमवतां धर्मः श्रुत्यादिषु यथोदितः। तथैव विधिवत्कार्यः स्ववृत्त्यनेन जीवता ॥
अर्थात्-श्रुति स्मृति में कहे गये वर्णाश्रमधर्म का पालन जैसा कहा गया है वैसाही करना चाहिये । जिस वर्ण की जिस वृत्ति को करनेका शास्त्र उपदेश देता हो वही करना चाहिये । और उसीसे अपना जीवन चलाना चाहिये।
जिस प्रकार विना मूलके वृक्ष नहीं रह सकता उसी प्रकार वर्णाश्रम धर्म के चिना पुष्टिमार्ग का रहना भी अशक्य है । इसलिये वर्णाश्रम धर्मकी रक्षा करना हमारा केवल शास्त्रीय सिद्धान्त ही नहीं किन्तु वह व्यवहार की दृष्टि से भी अत्यन्त अपेक्षित है । फलतः जिस प्रकार गौ
और ब्राह्मण की रक्षा करना वर्णाश्रम धर्म है उसी प्रकार यह पुष्टिमार्गीय धर्म भी है और इनकी रक्षा करना प्रत्येक वैष्णव का कर्तव्य है।