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श्रीमद्वल्लभाचार्य है। आपने तो आज्ञा की है कि मनमें वेद के मिथ्या कहने का विचार मी उठने से जीव दोषग्रस्त हो जाता है । वेदों का प्रामाण्य स्वीकार करते हुए आप कहते हैं कि चक्षु आदि इन्द्रियां भी अन्यमुख देखने से परतन्त्र प्रमाण हैं। वे अपने आप ही प्रमाण नहीं हैं । यदि वे स्वतः प्रमाण हों तो कभी भ्रम उत्पन्न ही न हो । इस लिये अन्य प्रमाण की अपेक्षा से रहित स्वतः प्रमाणभूत भगवद्रूप वेद ही परम प्रमाण हैं।
तर्क के द्वारा धर्मका निर्णय अथवा ब्रह्मका निर्णय करना योग्य नहीं है इसी बात के लिये आपने कहा है कि 'वेदोक्त अर्थमें उस शुष्क तर्क को जगह देनी उचित नहीं है क्यों कि तर्क की स्थिरता नहीं है । श्रुति ही ब्रह्म के विषय में प्रमाण है क्यों कि ब्रह्म केवल स्वतः प्रमाणभूत शब्दगम्य है अतः श्रुत्युक्त अर्थ का शुष्क तर्क से खून करना योग्य नहीं है । अचिन्त्य विषयोंमें तर्क को स्थान ही नहीं देना चाहिये _ 'वेदों का लौकिक दृष्टि से अर्थ करना वेदकी हिंसा करने के बराबर है।' __ 'प्रभुका भक्त भी यदि वेद की निंदा करै तो वह नीच है।' उपर्युक्त उदाहरणों के द्वारा यह सिद्ध हो जायगा कि इस मत के प्रवर्तक श्रीमद्वल्लभाचार्यजी वेदों का