________________
श्रीमद्वल्लभाचार्य चाहिये इसी प्रकार वेदों के प्रतिकूल अर्थ को भी ग्रहण नहीं करना चाहिये।
आचार्यश्री के वेदों के विषयमें यह मत हैं।
"नैव केवलयुक्त्या लोकदृष्टान्तेन निर्णयः शक्यते कर्तुम् । अन्यथेदं शास्त्रं व्यर्थमेव स्यात् । अत्र हि वेदादेव ब्रह्मस्वरूपज्ञानम् ।" अर्थात्-इस प्रकार केवल युक्ति या लोकहटान्त का आश्रय लेकर ही निर्णय करना अशक्य है । अन्यथा इस शास्त्र का अस्तित्व ही व्यर्थ हो जायगा । यहां तो वेद से ही ब्रह्म स्वरूप का ज्ञान हो सकता है। 'वस्तुतस्त्वलौकिकार्थे वेद एव प्रमाणं नान्यत् ।' अर्थात्-सत्य तो यह है कि अलौकिकार्थ का ज्ञान कराने में वेद ही प्रमाण हैं और कोई शास्त्र नहीं।' __ वेदों के विषय में आपश्रीने अपने तत्वदीप निबन्ध में कहा है कि 'जो लोग वेदके विरुद्ध कार्य करते हैं वे सब पाखण्डी है । चाहें उनका वह कार्य कितना ही छोटा क्यों न हो या बड़ा क्यों न हो।
अपनी सेवापद्धति को वेद से सिद्ध करते हुए आपने कहा है_ 'वेदानुसारेण भगवद्भजनं विहाय नान्यमार्गे यतनीयम्' अर्थात् भगवान् की सेवा या भक्ति वेदके अप्रतिकूल करनी चाहिये । और मार्ग से सेवा पूजा या मक्ति अवैदिक होने से त्याज्य है । इस वाक्य से पुष्टि