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और उनके सिद्धान्त। भी प्रयुक्त होता है उन से विशेषता दिखलाने के लिये ही शुद्ध शब्दका प्रयोग है । जिन लोगों के यहां 'अद्वैत' शब्द प्रयुक्त होता है वहां सब पदार्थ ब्रह्मरूपही माने गये हों यह नहीं है । उस 'अद्वैत' में सिद्ध किया गया है कि 'यह जगत् माया रूप है । मिथ्या है और ब्रह्म सत्य निर्विशेष और अद्वितीय है । इस प्रकार जगत् को शून्य (प्रच्छन्नयोद्ध) मिथ्या और ब्रह्म को निर्विशेष माना गया है। किन्तु यह शुद्धाद्वैत में मान्य नहीं है । शुद्धाद्वैत का तो सिद्धान्त यही है कि यह सब जगत् ब्रह्मरूप है सत्य है । इसी लिये उस अद्वैत से इसकी विरुद्धता दिखलाने के लिये ही शुद्ध शब्द 'अद्वैत' में लगाया गया है । शुद्धाद्वैत सिद्धान्त के अनुसार यह जगत् ब्रह्मरूप है उस से अलग नहीं है । इस में और ब्रह्ममें कोई भेद नहीं है। जो कुछ भेद हमें दिखलाई दे वह सब हमारी अविद्या है । अहन्ता ममता है । इसकी ही निवृत्ति करनी चाहिये तव ब्रह्म में और जीव में कुछ भी मेद नहीं रहता।