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श्रीमद्वल्लभाचार्य की सृष्टिका विस्तार हो उन्हें उचित है कि वे अपने जन्म में कमसे कम तीन विधर्मियों को वैष्णव बनाये । भगवद्भक्त का यही कर्तव्य है कि वह औरों का भी उद्धार करे
और पुष्टिमार्गीय धर्म को विश्वधर्म बनाये। __ इस पुष्टिमार्ग को शुद्धाद्वैत भी कहते हैं । अतः शुद्धाद्वैत
शब्द पर भी विचार कर लेना उचित है ।
- इस में दो शब्द हैं एक 'शुद्ध' और दूसरा 'अद्वैत'। द्वैत से जो उल्टा है-विरुद्ध है-वही अद्वैत है इस लिये द्वैत का वर्णन करने से उसके विरुद्ध स्वरूप का ज्ञान हो जायगा।
नाम तथा रुपसे, ईश्वर तथा जीव रूप से कार्य और कारणरूप से जो जो दो प्रकार का ज्ञान हो उसे द्वैत कहते है । इसी के विरुद्ध जो ज्ञान-दो प्रकार का ज्ञान न होना उसे ही अद्वैत कहते हैं । यह वेदमें 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म तजलानिति पठ्यते ।' (उत्पत्ति, लय तथा स्थिति इस जगत् की ब्रम में ही है । इस लिये यह दृश्यमान् सर्वे नामरूपात्मक जगत् ब्रह्म है) यह अद्वैत का उदाहरण है। जगत् और ब्रह्म विषयमें दो प्रकार का ज्ञान होना 'द्वैत' है और एक प्रकार का ज्ञान होना 'अद्वैत' है ।
अब यह देखें कि इस 'अद्वैत' के साथ 'शुद्ध' शब्द का प्रयोग क्यों किया । 'अद्वैत' शब्द और लोगों के यहां