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________________ श्रीमद्वल्लभाचार्य और क्या कहें ? भक्त को और कहने का अधिकार ही क्या है ? में हरियश जिस प्रकार गान करता हूं आप भी उसी प्रकार हरिनाम लिया करें। और क्या ?' राजा इन के यह निरपेक्ष वचन सन परम प्रसन्न हआ और साष्टाङ्ग प्रणाम कर बोला 'प्रभो ! माया के दास तो बहुत देखे किन्तु ईश्वर के दास मैने आज तक नहीं देखे सो आज आप के दर्शन कर मैं कृतार्थ हुआ।' ___ पुष्टिमार्गीय भक्त के सर्वार्थ साधक भगवान् स्वयं वन जाते हैं । उनको किसी बात की अपेक्षा करनी ही नहीं पडती । भगवद्पी अर्थ सवार्थों से निरपेक्ष है । भगवान् की साधना करने में किसी भी अर्थ की अपेक्षा नहीं रहती । भगवान् ने स्वयं आज्ञा की है 'तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।' अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति ही योग है और प्राप्त वस्तु का संरक्षण करना ही क्षेम है । इसी लिये मक्त को उचित है कि वह प्रभु के प्रति कोई भी प्रत्युपकार की प्रार्थना न करे । भगवान् को यदि अमुक वस्तु अपने भक्त को देनी है तो वह अवश्य ही देंगे । यदि देने की इच्छा नहीं है तो मांगने पर भी नहीं देंगे । अतः मौनावलंब ही योग्य है । ईश्वर में अत्यन्त विश्वास होना ही जीव का परम कर्तव्य है । जीव को योग्य है कि वह ईश्वर के सर्व कार्य में अपनी
SR No.010555
Book TitleVallabhacharya aur Unke Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVajranath Sharma
PublisherVajranath Sharma
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith & Hinduism
File Size10 MB
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