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और उनके सिद्धान्त ।
दास के भक्तिरस से भरे हुए पदों को सुन राजा का मन कुम्भनदास को एक बार देखने को बहुत कर रहा था। अपनी इसी अभिलाषा को पूर्ण करने राजा कुम्भनदास के गाम पारसोली गया । कुम्भनदास उस समय स्लान से निवृत्त हुए थे और तिलक लगा रहे थे। उन की आर्थिक स्थिति उस समय बडी खराब हो रही थी। यहां तक कि अपना मुख देखने के लिये अपने घर में वे एक काच का टुकडा भी नहीं रख सकते थे। कुम्भनदास उस समय जल में मुख देख तिलक लगा रहे थे । राजा को इन की यह परिस्थिति दयनीय मालुम हुई और इन ने अपने पास से एक थेली मोहोर की निकाल उसे स्वीकार करने की इन से प्रार्थना की । सन्तोषी दरिद्र वैष्णव बोला 'महाराज में इस द्रव्य का क्या करूंगा ? मेरे मन तो ठाकुरजी जो भी कुछ मुझे कृपा कर दे देते हैं वही बहुत है और उसे ही मै निर्दोष द्रव्य समझता हूं। मेरी इस छोटी सी खेती में से
और इन चार वृक्षों से जो कुछ आता है, मेरे लियें तो वही बहुत है ।' राजा ने इस पर कहा 'वैष्णवराज, यह छोटी सी खेती आप के लिये बहुत थोडी है आज्ञा हो तो इस सारे गांव को आपके नाम लिखा दूं।' कुम्भनदास ने इसे भी स्वीकृत नहीं किया तब राजा ने कहा 'महाराज, कुछ तो आज्ञा करिये ।' तव कुम्भनदास ने कहा 'राजन् , हम