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श्रीमद्वल्लभाचार्य
श्यक नहीं समझता । भगवान् स्वयं जिसके अर्थ स्वरूप घनें उस के जैसा भाग्यवान् और कौन होगा ? ऐसे भक्त के लिये महाप्रभुजी लिखते हैं-'एवं सदास्म कर्तव्यं स्वयमेव करिष्यति । प्रभुः सर्वसमर्थो हि ततो निश्चिन्ततां व्रजेत् ।' भक्त के भगवान् ही अच्छे अर्थरूप हो जाते हैं । भगवान् सब करने में समर्थ हैं । जो भजनरुप धर्म यथार्थ करें तो भगवान् ही अपने अर्थरूप हो जाते है। और इस लोक और पर लोक का सब कार्य आप ही कर लें । इस लिये पुष्टिमार्गीय भक्त को तो सर्वदा निश्चिन्त ही रहना चाहिये । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन के लिये उद्वेग कभी नहीं करना चाहिये । 'वैराग्यं परितोषं च सर्वथा न परित्यजेत्' अर्थात् अपनी दशा पर ही सन्तोष रखना उचित है । अपने हृदय में श्रीहरि के अनुराग के अतिरिक्त और किसी भी वासना को उत्तेजित करना सर्व था अयोग्य है । अपने सकल मनोरथ भगवान् सिद्ध करें गे यह पूर्ण विश्वास होना चाहिये । भक्त के हृदय में वैराग्य
और सन्तोष का रहना परमावश्यक है। पुष्टिमार्गीय भक्त कितने निरपेक्ष होते हैं उसका एम्दाहरण यहां दे देना