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________________ ८४ श्रीमद्वल्लभाचार्य श्यक नहीं समझता । भगवान् स्वयं जिसके अर्थ स्वरूप घनें उस के जैसा भाग्यवान् और कौन होगा ? ऐसे भक्त के लिये महाप्रभुजी लिखते हैं-'एवं सदास्म कर्तव्यं स्वयमेव करिष्यति । प्रभुः सर्वसमर्थो हि ततो निश्चिन्ततां व्रजेत् ।' भक्त के भगवान् ही अच्छे अर्थरूप हो जाते हैं । भगवान् सब करने में समर्थ हैं । जो भजनरुप धर्म यथार्थ करें तो भगवान् ही अपने अर्थरूप हो जाते है। और इस लोक और पर लोक का सब कार्य आप ही कर लें । इस लिये पुष्टिमार्गीय भक्त को तो सर्वदा निश्चिन्त ही रहना चाहिये । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन के लिये उद्वेग कभी नहीं करना चाहिये । 'वैराग्यं परितोषं च सर्वथा न परित्यजेत्' अर्थात् अपनी दशा पर ही सन्तोष रखना उचित है । अपने हृदय में श्रीहरि के अनुराग के अतिरिक्त और किसी भी वासना को उत्तेजित करना सर्व था अयोग्य है । अपने सकल मनोरथ भगवान् सिद्ध करें गे यह पूर्ण विश्वास होना चाहिये । भक्त के हृदय में वैराग्य और सन्तोष का रहना परमावश्यक है। पुष्टिमार्गीय भक्त कितने निरपेक्ष होते हैं उसका एम्दाहरण यहां दे देना
SR No.010555
Book TitleVallabhacharya aur Unke Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVajranath Sharma
PublisherVajranath Sharma
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith & Hinduism
File Size10 MB
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