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श्रीमदल्लभाचार्य पशाली वीर उप्तन्न कीजिये जो इन दुष्टों का और विशेष कर इस इन्द्रका दमन करे ।' मुनि की अनुकम्पा से दिति ने ऐसे ही गर्भ का कालान्तर में धारण किया । यह देख इन्द्र वडा भयभीत हुआ। वह इस गर्म को नष्ट करने का उपाय सोचने लगा किन्तु कोई उपाय उसे न सूझा । दैवात् उसके इस मनोरथ की सफलता हो गई। एक दिन विति प्रमाद वश उच्छिष्ट मुख ही सो गई । यह अवसर योग्य देख इन्द्र अपने योगवल से दिति के जठर में प्रविष्ट हुआ और अपने अमोघ वज्र से उस अबोध और निरीह गर्भ पर प्रहार किया । यह प्रहार तब तक हुआ किया जब तक गर्भ के ४९ टुकडे न हो गये । जब उनचास टुकडों में टूट कर भी गर्भन मरा तव इन्द्र उरा और ईश्वर के असीम अनुग्रह का उसे स्मरण हुआ। वह समझ गया कि जिस पर भगवान् का अनुग्रह होता है उसकी सर्वत्र रक्षा भगवान् करते हैं । उसे विश्व की भयंकर से भी भयंकर शक्ति पछाड नहीं सकती। उसे अपने इस गर्हित कर्म से बडी लज्जा आई । वह स्वयं वहां से निकल कर भाग जाना चाहता था किन्तु कोई अज्ञात शक्ति उसे अकेला भागने से रोक रही थी। निदान वह उन उनचास जीवित टुकडों को भी अपने साथ स्वर्ग में ले गया और उन्हें अपने भाई कह कर लोकमें उनको परिचित कराया । वे ४९ टुकडे ही आज मरुद्गण के नाम से प्रसिद्ध हैं।