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श्रीमद्वल्लभाचार्य दोपों की सर्वथा निवृत्ति क्रमिक अभ्यास से होती है तथापि जिस दिनसे गुरुके द्वारा इन दोपोंकी निवृत्ति का उपाय प्रारम्भ किया उस प्रारम्भ का नाम ही 'ब्रह्मसम्बन्ध है। __ ब्रह्मसम्बन्ध का जो मन्त्र है उसमें यह बात समझाई गई है कि सपरिकर जीव ब्रह्म का है-प्रभु श्रीकृष्ण का है। श्रीकृष्ण जीव के उपजीव्य, स्वामी, अंशी हैं । इस लिये जीव के लिये एक मात्र श्रीकृष्ण ही सेव्य है-वे ही जीव के सर्वस्व हैं । जीव श्रीकृष्ण का उपजीवक दास और अंश है । इस लिये वह श्रीकृष्ण का सेवक है। जगत् में श्रीकृष्ण ने जीव को इसी लियें जन्म दिया है कि वह उनकी सेवा करता रहै।
प्रभु में और जीव में जो यह स्वामी और सेवक का सम्बन्ध है उसे जीव संसार में आकर, अहंता ममता दोष से भ्रमित होकर, मूलजाता है । इस ब्रह्म के और जीव के संबंधको आचार्य के द्वारा स्मरण कराने वाले मन्त्र को ब्रह्मसम्बन्ध मन्त्र कहते हैं। __ प्रति दिन और प्रतिपल इस सम्बन्ध का प्रत्येक वैष्णव को स्मरण करते रहना चाहिये । ये स्मरण जब दृढ हो जाता है तब पांच दोष सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं। पांच दोष ये हैं-सहज, देशकालोत्थ, लोकवेदनिरूपित, संयोगज और स्पर्शज ।