________________
५४
श्रीमद्वल्लभाचार्य
ये सब रहते हुए भी भगवदीय वैष्णवों को तो परब्रह्म श्रीकृष्ण ही सेव्य और आश्रय लेने लायक हैं।
सिद्धान्तमुक्तावली-इस ग्रन्थ में नवधा भक्ति करना जीव का मुख्य कर्तव्य है यह बतलाया गया है। यह नवधा भक्ति पुष्टि मार्गीय तनुजा भक्ति में आजाती है । तनुजा सेवा वित्तजा सहित करनी ऐसा सिद्धान्त है । अपनी शक्तिके अनुसार प्रभु की सेवा में द्रव्य का विनियोग करना यह वित्तजा सेवा है।
अपने शरीर से भक्त को, मार्जन से लेकर शयन पर्यन्त प्रभु की परिचर्या करना तनुजा सेवा है। श्रद्धापूर्वक सब पदार्थों में प्रभु तथा प्रभु के संबंध की भावना करके जो वैष्णव नित्य तनुजा और वित्तजा सेवा किया करता है उस को प्रभु में प्रेम उत्पन्न हो कर चित्त की तन्मयता होती है यह सेवा मुख्य और फलात्मिका है।
वैष्णव को उचित है कि वह सब जगत् को और अपनी आत्माको अक्षर ब्रह्मात्मक प्रभु का लीलास्थल मानता हुआ प्रभु प्रेमके लिये तनुजा और वित्तजा सेवा करता रहै । ऐसे वैष्णव को कुछ कालही में यहां अहंता ममता नाश, तथा सर्व पदार्थ अक्षरधाम हैं ऐसा ज्ञान उत्पन्न हो जाता है।