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________________ ४८ उत्तराग्ययन सूत्र टिप्पणी-शरीर, धन, स्वजन आदि सामग्री मुख्य नहीं है, गौण है। उसका दुरुपयोग करने से ही सुख मिल सकता है। उसकी लालसा में यदि कोई जीवन खर्च करेगा तो वह सब कुछ खो बैठेगा। (१५) कर्मों के मूल कारण (बोज) का विवेक पूर्वक विचार करके अवसर (योग्यता) देख कर (संयमी बनने के पीछे) निर्दोष भोजन और पानी को भी माप (परिमाण) से ग्रहणकरे । टिप्पणी-योग्यता बिना संयम नहीं टिक सकता। इसी लिए 'अवसर देख कर' इस विशेषण का प्रयोग किया है। स्याग और तप के विना पूर्व संचित कर्मों का नाश असंभव है इसी लिए स्याग को भनिवार्य बताया है। (१६) त्यागी लेशमात्र भी संग्रह न करे। जैसे पक्षी अन्य वस्तुओं से निरपेक्ष रह कर केवल परों को अपने साथ लेकर विचरता है वैसे हो मुनि भी (सद वस्तुओं से), निरपेक्ष होकर विचरे ।' (१७) लज्जावन्त (संयमी लज्जा रखने वाला) और ग्रहण करने में भी मर्यादा रखने वाला भिक्ष ग्राम, नगर इत्यादि स्थानों में, बन्धन रहित (निरासक्त) होकर विचरे और प्रमादियों ( गृहस्थों) के संसर्ग में रहने पर भी अप्रमत्त रहकर भिक्षा की गवेषणा (शोध ) करे। _ "इस प्रकार से वे अनुत्तर ज्ञानी तथा अनुत्तर दर्शनधारी अहेन्व भगवानज्ञातपुत्र महावीर विशाली नारो में व्याख्यान करते थे"-ऐसा जंबू स्वामी को सुधर्म स्वामी ने कहा । ऐसा मैं कहता हूँ इस तरह "क्षुल्लक निर्ग्रन्थ” नामक छठा अध्याय समाप्तहुआ।
SR No.010553
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyachandra
PublisherSaubhagyachandra
Publication Year
Total Pages547
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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